गुरुवार, 13 फ़रवरी 2014

मंथन

कविता 

हैरान 


मेरे अन्तः मंथन संग्राम मे 
मैं बिखर के  रह गया हूँ !
मेरे प्रियतमे 
मेरे पास आओ 
मेरे बालों को सहृदयता के साथ 
फिर से सहला दो 
तुम्हारी हथेली का स्पंदन 
मेरे सर से स्पर्श होते ही 
देगा मुझे ------------
एक लम्बी शांती 
मुझसे तुम्हारी दूरियां  कैसी 
करीब आओ अपनी छाया से 
मेरे सर को अलग ना करों 
आह इससे तो मेरा
जीवन ले लो !!!!!!!!!!

दिनेश सक्सेना

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