शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2014

मंथन

कविता 

सीधे शब्द 


क्या तुम्हारी खुशियों के लिये बुनूँ मैं
शब्दों के, अदाओं के मायाजाल
या सीधे शब्दों में कह दूँ
नहीं अभी नहीं है मुझमें कोई भी भाव
न प्रेम, न दया, न करूणा, न घृणा के

पर रंग विहीन नहीं है हृदय मेरा मै जानूँ
जब पढ़ती हूँ तुमको तुम्हारे शब्दों में
उत्पन्न होते है जो भाव, वही तुम्हारे लिये है
और वही तुम्हारे शब्दों के लिये भी है
तुम भी हो इंसान, मै भी हूँ इंसान
अभी मृत नहीं है मुझमें इंसानियत
तभी हृदय की अतल गहराईयों से चाहूँ
तुम्हारे लिये सुख, समृद्धी , सम्मान,
शान्ति की असीमित दुनियाँ। …
 जिसमें जब भी मैं आऊं,
तुमको हँसता हुआ ही पाऊं
.

                              ...................... …………… रेनू सिंह

शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2014

मंथन

कविता 


आओ हम तुम एक हो जायें

 


तुम खुद को पाओ मुझमें
मै खुद को पाऊँ तुझमे
न तुझको शिकायत मुझसे हो
न मुझको शिकायत तुझसे हो
कुछ ऐसा तुम भी करो
कुछ ऐसा मै भी करूँ
तुमको तुम्हारा ईश्वर मिल जायें
मुझको मेरा ईश्वर मिल जायें
तुम अपनी कमियाँ मुझमे देखो
मै अपनी कमियाँ तुममे देखूँ
आओ इक दूजे का दर्पण बन जायें
आओ हम तुम एक हो जायें
कितनें बाजार सजे तन के है,
तन मिलतें हैं रोज यहाँ
आओ मन का बाजार सजायें,
इक दूजे के मन से मन को मिलायें
आओ हम तुम मन से एक हो जायें
इक दूजे का दर्पण बन जायें



………… रेनू सिंह


गुरुवार, 2 अक्तूबर 2014

मंथन

कविता

  ओ  सखी


जान पहचान नहीं है ,
फिर भी पहचानी सी लगती हो
 
छायांकन हो या कोई स्वप्निल सी
पर तुम सदृश्य नहीं हो मुझको को
 

सुन्दर हो या सुकोमल हो, क्या हो ?
कैसी हो क्या -- क्या   सोचू  मै
 

सरस-- पराग --सी लगती हो तुम
हो कल्पना लोक मे कविता सी
 

या वसी हो मेरा मन आँगन मै
 हो कोई सुरभित सुगंध सी
 

या नील गगन मे शशी शेखर सी
नाज़ुक सी शरमाई सी लगती हो तुम
 

कभी तीखे नयनों वाली सी  दिखती हो
कभी सावन कि झडी सी लगती हो   
 

कभी तुम प्रस्तुत मेरे निज  मन मे
उषा कि प्रथम किरण सी वसती हो
 

तुम कभी उलझी सी दिखती हो
कभी तुम सुलझी सी लगती हो
 

कौन हो तुम कुछ तो दो परिचय
बिन परिचय कैसे पहचानू सखी

दिनेश सक्सेना