शुक्रवार, 14 जुलाई 2017

मंथन

कविता 



काल खंड 



मेरे  नयनो  में  
स्वप्न  बन के वो रहती  है
आज भी............................

हृदय वीणा के तारों मे  
सप्तम स्वर  सी गूँजती  है तू
आज भी...............................

तेरे पदचाप  की मंद आहट से
ये हृदय  मेरा मंद मंद  सा  धड़कता है
आज भी..........................................

शरीर  की शिराओं  में लहू बन के
प्रेम तेरा झरने सा कलकल करता  है 
आज भी........................................

मध्यम-मध्यम सुगन्धित  तेरे शरीर से
घर आँगन मेरा महकता रहता है
आज भी .......................................

दिनेश सक्सेना

गुरुवार, 13 जुलाई 2017

मंथन

कविता 


कालचक्र 



न तुम अब चिंतन मे आती हों,
न ही तुम अब लेखनी मे बन्ध पाती हो
तुम  मेरी  स्मृतियों  मे आती तो हो 
पर, एक बीते पल से टकरा कर लौट जाती हो 
ऐसे ही पड़े रहते हैं वीरान कागज, 
लेखनी  भी तेरा नाम लिखने से पहले ही रो देती है.
 प्रेम- सागर सामने तेरे रख दिया था  मैंने,
 तुम भींग कर भी, अनुभूति  न कर सकीं 
 तुम मंजरी सी दिखती थी , मैं बस तुम्हें निहारता रहता था,
 पर तुम आँखों की भाषा  को न कभी पढ़  सकीं .
 कभी झूठ तो कभी सच्ची प्रतिमा लगती हो तुम,
 प्रथम दृष्टि जब तुम्हें देखा तो तुम निश्छल लगी थी,
 सत्य की एक झीनी परत उतारने पर ,मेरे दिल को आघात लगे थे
फिर भी विश्वास क्यों हो रहा था ,मानो 
सारी व्यस्तता के मध्य भी देखो ,तेरे जाने के बाद भी 
समय नहीं मिलता तेरी यादों से ,
किसको सच मानू ,तुम्हारे चले जाने को,
तुम्हारे न समझने को ,
या फिर मेरी एक तरफ़ा सोच के सीमित दायरों को ???????????????


दिनेश सक्सेना
 

सोमवार, 3 जुलाई 2017

मंथन,

कविता 


ऋतु 



ऋतु नहीं हूँ मै 
जो बदल जाऊं 
और न हूँ मै 
रुख हवा का 
जो किधर भी मुड़ जाऊं  

हूँ  स्थिर मै 
अथाह समुन्दर सा 
बाहें पसारे 
प्रतीक्षारत 
तुम्हारे लिये |

तुम आकर समाना 
मुझमे कभी 
नदियों कि मानिंद


दिनेश सक्सेना




मंथन,

कविता 


काली स्याही 


घनघोर काली स्याही से                        
लिखी है विधाता 
ने मेरी नियति 
है नहीं 
एक भी हर्फ़ 
रौशनी का 
तुम जो 
बनना चाहती 
हो परछाई मेरी 
सुनो नीव के 
पत्थरों कि .......................
परछाई नहीं 
हुया करती 


दिनेश सक्सेना