गुरुवार, 23 अप्रैल 2015

मंथन

कविता 


इस्पाती आलिंगन 


तेरा  अनूठा प्रेम 
इस्पाती आलिंगन मे
बांधे हुय है मुझको | 
मैं मुक्त हूँ --------
ऐसा समझा मैंने अनेक बार 
किन्तु सदा बेचैनी मुझे है 
जैसे --------------------
बँधे  हुय  कठिन  से 
कठिनतर --------। 
दिन प्रतिदिन ----
रातों पर रातें ----
गुजर रही है 
चाहत है कि  मुक्ति पा जाऊ 
प्रेम-- जाल से , पर --------
तेरे प्रेम के कठोरतम आलिंगन कि 
जकरन ने ---------------------
नहीं दिखाई चाहत कि ----------
मुक्ति पा जाऊ --------------
मैं तुझे पुकारूं या न पुकारूं 
रुक रुक कर  सोचूँ 
दर्द दिया और --------------
इतने कसकर बाँधे  बंधन 
कि -------------------------
आहें भी औष्टों पर मेरे -----
मौन हुयी -------------------। 
समझ गया -------------------
जब चाहोगी मुक्त करोगी 
मेरे मुक्ति की विनती का 
यहाँ कोई मोल नहीं है ॥॥॥ 

दिनेश सक्सेना

रविवार, 19 अप्रैल 2015

मंथन

कविता 


खुल कर सांस ले


तू 
जीवन भरपूर जी
उसे उलझाने का 
प्रयास न कर 

मदहोश सपनो के
ताने बाने  बुन
उसमे अटकने की 
कोशिश न कर

बहते वक़्त के साथ 
तू भी अविरल बह 
उसमे डुबकी लगाने 
की कोशिश न कर 

आंतर मे चल रहे 
अंतर्द्वंद को विराम दे 
अकारण स्वयं से लड़ने की
कोशिश न कर 

थोडा तो
परमात्मा पर छोड़ दे
सब कुछ लेने की 
कोशिश न कर 

जो मिल गया 
उसी मे प्रसन्न रह 
जो शान्ति छीन ले 
उसे पाने की कोशिश न कर 

अपने हाथों को फैला 
खुलकर सांस ले 
अन्दर ही अन्दर घुटने की 
कोशिश न कर 

दिनेश सक्सेना









बुधवार, 15 अप्रैल 2015

मंथन

कविता 


सत्य --झूठ 


तुम जो कहो वह सत्य है 

मेरा सत्य …झूठ  है 

मै झूठ। …तू सत्य है 

यही आज की पैमाइश है 

विचार आगे बड़  चुके 

आत्मा मे भी घाव है 

तुम्हारी हठ से.……… 

अंतर मे  पीर है। …… 

सब कुछ सहन कर जाऊंगा 

झूठे तेरे तर्कों के आगे। .... 

तेरे पैरों तले ना  गिर पाउँगा 

आत्मा मे  घाव हो सह जाऊंगा 

तेरा अहित ना होने दूंगा। …। 

सब कुछ सहन कर जाऊंगा !!!!!!!!!!!!!!!


दिनेश सक्सेना

मंगलवार, 14 अप्रैल 2015

मंथन

कविता 


सुख दुःख 


सुख है दुःख है 
आता -जाता है 

पर प्रतीक्षा आज भी 

तुम्हारे दर्शन ,तुम्हारे श्रवण की 

दे दो एक दिव्य किरण साक्ष की 

तुम्हारे मधुर स्वर ,सम्भाषण 

सब है क्रमशः ,जो आज है 

यही वर्तमान है ,मत भटको 

मत टूटो ,न उदास हो 

जो आएगा कल ,खिल जायेगा जीवन 

जीवन वह गंगा है ,जो अविरल है 

विस्मित ,विव्हल ,विभ्रांत रहा दिग्भ्रमित 

न होने दूंगा मान तुम्हारा हेटा 

विश्वास रखो इतना जो तुमसे पाया 

उसके लिए शपथ  प्रतिज्ञ 

उठते गिरते प्रश्न अनेको ....  

जब भी सोचा तेरे जीवन हित  मे

पीछे पड़ गया बिना रीढ़  का शहर

दिनेश सक्सेना


गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

मंथन

कविता 



बहने दो 



पिघल कर बहने दो
बर्फ़ होते सपनों को
कि
बनते रहें
आँखों में उजालों के नए प्रतिबिम्ब
छूने दो
मदमस्त पतंगों को
अंबुज की हदें
कि गढ़े जाएँ
ऊँचाई के नित नए प्रतिमान
बढ़ने दो
शोर उमँगो का
कि
घुलते रहें
रोशनी के हर नए रंग
ज़िन्दगी में
हर अँधेरे के विरुद्ध।


दिनेश सक्सेना