कविता
इस्पाती आलिंगन
तेरा अनूठा प्रेम
इस्पाती आलिंगन मे
बांधे हुय है मुझको |
मैं मुक्त हूँ --------
ऐसा समझा मैंने अनेक बार
किन्तु सदा बेचैनी मुझे है
जैसे --------------------
बँधे हुय कठिन से
कठिनतर --------।
दिन प्रतिदिन ----
रातों पर रातें ----
गुजर रही है
चाहत है कि मुक्ति पा जाऊ
प्रेम-- जाल से , पर --------
तेरे प्रेम के कठोरतम आलिंगन कि
जकरन ने ---------------------
नहीं दिखाई चाहत कि ----------
मुक्ति पा जाऊ --------------
मैं तुझे पुकारूं या न पुकारूं
रुक रुक कर सोचूँ
दर्द दिया और --------------
इतने कसकर बाँधे बंधन
कि -------------------------
आहें भी औष्टों पर मेरे -----
मौन हुयी -------------------।
समझ गया -------------------
जब चाहोगी मुक्त करोगी
मेरे मुक्ति की विनती का
यहाँ कोई मोल नहीं है ॥॥॥
दिनेश सक्सेना
कविता
खुल कर सांस ले
तू
जीवन भरपूर जी
उसे उलझाने का
प्रयास न कर
मदहोश सपनो के
ताने बाने बुन
उसमे अटकने की
कोशिश न कर
बहते वक़्त के साथ
तू भी अविरल बह
उसमे डुबकी लगाने
की कोशिश न कर
आंतर मे चल रहे
अंतर्द्वंद को विराम दे
अकारण स्वयं से लड़ने की
कोशिश न कर
थोडा तो
परमात्मा पर छोड़ दे
सब कुछ लेने की
कोशिश न कर
जो मिल गया
उसी मे प्रसन्न रह
जो शान्ति छीन ले
उसे पाने की कोशिश न कर
अपने हाथों को फैला
खुलकर सांस ले
अन्दर ही अन्दर घुटने की
कोशिश न कर
दिनेश सक्सेना
कविता
सत्य --झूठ
तुम जो कहो वह सत्य है
मेरा सत्य …झूठ है
मै झूठ। …तू सत्य है
यही आज की पैमाइश है
विचार आगे बड़ चुके
आत्मा मे भी घाव है
तुम्हारी हठ से.………
अंतर मे पीर है। ……
सब कुछ सहन कर जाऊंगा
झूठे तेरे तर्कों के आगे। ....
तेरे पैरों तले ना गिर पाउँगा
आत्मा मे घाव हो सह जाऊंगा
तेरा अहित ना होने दूंगा। …।
सब कुछ सहन कर जाऊंगा !!!!!!!!!!!!!!!
दिनेश सक्सेना
कविता
सुख दुःख
सुख है दुःख है
आता -जाता है
पर प्रतीक्षा आज भी
तुम्हारे दर्शन ,तुम्हारे श्रवण की
दे दो एक दिव्य किरण साक्ष की
तुम्हारे मधुर स्वर ,सम्भाषण
सब है क्रमशः ,जो आज है
यही वर्तमान है ,मत भटको
मत टूटो ,न उदास हो
जो आएगा कल ,खिल जायेगा जीवन
जीवन वह गंगा है ,जो अविरल है
विस्मित ,विव्हल ,विभ्रांत रहा दिग्भ्रमित
न होने दूंगा मान तुम्हारा हेटा
विश्वास रखो इतना जो तुमसे पाया
उसके लिए शपथ प्रतिज्ञ
उठते गिरते प्रश्न अनेको ....
जब भी सोचा तेरे जीवन हित मे
पीछे पड़ गया बिना रीढ़ का शहर
दिनेश सक्सेना
कविता
बहने दो
पिघल कर बहने दो
बर्फ़ होते सपनों को
कि
बनते रहें
आँखों में उजालों के नए प्रतिबिम्ब
छूने दो
मदमस्त पतंगों को
अंबुज की हदें
कि गढ़े जाएँ
ऊँचाई के नित नए प्रतिमान
बढ़ने दो
शोर उमँगो का
कि
घुलते रहें
रोशनी के हर नए रंग
ज़िन्दगी में
हर अँधेरे के विरुद्ध।
दिनेश सक्सेना