सोमवार, 29 अगस्त 2016

मंथन

कविता



सखी 




सखी,
नहीं विस्मृत कर पाया
तेरे प्रथम मिलन के क्षणों को
जब प्रथम दिन प्रथम बार
विघालय में मिले थे
तेरा वह अलकों को झुकाना
फिर उठाना,आगे बढ़ जाना


सखी,
सब कुछ पूर्व जैसा ही तो है
कुछ नहीं परिवर्तन अभी तक
सब हृदय पटल पर अंकित है
पैतालीस वर्ष के अंतराल के सिवा
क्या बदला है आज भी
बस अब अलग अलग ही तो है


सखी,
तेरे प्रेम स्पर्श ने ...........
मुझे क्या से क्या बना दिया
मेरी भावनाओं को समाहित कर अपने में
मुझे नया रूप दे दिया........
तूने मेरी साँसों को छंदों बाँध
एक नया मधुर गीत दे दिया


सखी,
हाथ पकड़ तूने ही दिखायी मुझे
सुंदरता जीवन की,मरुभूमि में
कुछ लेने देने,कुछ खोने पाने की
दोनों को लेशमात्र,अपेक्षा न थी
तुमने ही हंसना रोना सिखाया
इस जग के कोलाहल में....


सखी,
मुझे प्यार है तुम्हारे तुम से...
जो तुम नहीं,तो मैं भी निष्प्राण हूँ
जो तुम में समा जाता है अपार
सच मुझे प्यार है तुमसे......
जो मेरे जीवन में लाता बहार


दिनेश सक्सेना

मंथन


कविता 



सखी 



कर्तव्य के सतपथ पर नहीं जानता की
वह कौन है...............
कोई शक्ति संजोय मानवाकृति या
कोई देवी...................


जब जब ....................
डूबा घोर अन्धकार में
ज्योति पुंज बन,
आशा की किरण जगाती हो


जब जब हृदय.............
जला मेरे क्रोध ज्वाला में
शशि बन.....................
शीतल शान्ति सी दे जाती हो


घायल ...................
पड़ा महासमर भूमि मे
विजया बन................
विजय पथ दर्शाती हो


दीप चक्षु युक्त अधिपति मेरी
या...........................
कोमल हृदय स्वप्न पथ पर जब भी मिलना मुझसे
वादा.....................
मैं मेरे मन की सुंदरता दे करूँ स्वागत तेरा


दिनेश सक्सेना