शुक्रवार, 8 अगस्त 2014

मंथन,

कविता 

कौन हो तुम 


कर्तव्य के सतपथ पर नहीं जानता की
...............वह कौन है ..................
कोई शक्ती संजोय मानवाकृति या
................कोई देवी ...................
कोई तेज या आभायुक्त मुखमंडल
................वह संगमरमरी है .........
..................या ...........................
दीप्त -चक्षु -युक्त अधिपति मेरी या
.....................कोई ....................
................कोमल ह्रदय ..............
नहीं जानता की क्यों है आज भी उसका
.....................आसन उच्च .............
मेरे ह्रदय स्थल मे मेरा ,  आन्तर आज भी
उसको पूजता है ,मान उसे देवी देवी को की
तुम कौन हो ?कौन हो ? कौन हो ? .........
तुझसे है कितनो का संसार ,कितने पाने
..........को प्रेरणा है तैयार ....................
बस ना तुम  रुको ,ना तुम हिम्मत हार
लगा ठोकर हटा पर्वत रूप धारण कर देवी का
.............बस जा जन जन मे .....................
स्वप्न पथ पर जब भी मिलना मुझे ,वादा
मै मेरे मन की सुन्दरता दे करूँ स्वागत तेरा !!!!!!!!!!!!!!

दिनेश सक्सेना

मंगलवार, 5 अगस्त 2014

मंथन,

कविता 


याद आई फिर मुझे


याद आई फिर मुझे तेरी वो मुलाकात
तेरा देखकर मुझे मुस्कुराना
और मेरा खुद को आश्चर्य से देखना
अपनी कमियों को ढूँढना
और सोचना तुम मुस्कुराई क्यूँ

समझ से परे था सखी
वो मित्रता का प्रथम आगाज़
धीरे-धीरे करीब आई परिचय हुआ
बैठने लगे साथ-साथ
टूटने लगी एक ही रोटी
दोनों की उँगलियों से
मुस्कुराने लगा फिर से बचपन
बढ़ने लगा विश्वास
सजने लगे जीवन के सपने
सुख दुःख मे चलने लगे
मिलाते हुये कदमों से कदम
सिमट गयी सारी दूरियाँ
बाहें कंधों पर आगये
मिलने लगे हर दिन गले
होली और ईद की तरह
दूर क्षितिज मे बुनने लगे सपने
होने लगी बीच हमारे वो भी बातें
जो कभी नही कर पाते है
रिश्ते खून के एक दूजे से
प्रगाढ़ हो गया
गहरे समुंद्र सा प्रेम हमारा
जिसमे घूमने लगे
बैठ मन की कश्ती में
एक दिन वो भी आया
ले सात फेरे तुम चली गई
और छोड़ गई पास मेरे
यादों का एक विस्तृत आकाश
और उस आकाश मे वो कोना
जहाँ आज भी तुम हो मै हूँ बैठी
पकडे एक दूसरे की कभी न छूटने वाली बाँहें
महक रही है जहाँ आज भी
हमारी मित्रता की खुश्बु
...............रेनू सिंह