अभिव्यक्ति
अनकहे भावों और एहसासों की...
अभिव्यक्ति
मुखपृष्ठ
राजनीति
मंथन
एहसास
धर्मक्षेत्र
सोमवार, 3 जुलाई 2017
मंथन,
कविता
ऋतु
ऋतु नहीं हूँ मै
जो बदल जाऊं
और न हूँ मै
रुख हवा का
जो किधर भी मुड़ जाऊं
हूँ स्थिर मै
अथाह समुन्दर सा
बाहें पसारे
प्रतीक्षारत
तुम्हारे लिये |
तुम आकर समाना
मुझमे कभी
नदियों कि मानिंद
दिनेश सक्सेना
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
नई पोस्ट
पुरानी पोस्ट
मुख्यपृष्ठ
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें