सोमवार, 3 जुलाई 2017

मंथन,

कविता 


ऋतु 



ऋतु नहीं हूँ मै 
जो बदल जाऊं 
और न हूँ मै 
रुख हवा का 
जो किधर भी मुड़ जाऊं  

हूँ  स्थिर मै 
अथाह समुन्दर सा 
बाहें पसारे 
प्रतीक्षारत 
तुम्हारे लिये |

तुम आकर समाना 
मुझमे कभी 
नदियों कि मानिंद


दिनेश सक्सेना




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