गुरुवार, 13 जुलाई 2017

मंथन

कविता 


कालचक्र 



न तुम अब चिंतन मे आती हों,
न ही तुम अब लेखनी मे बन्ध पाती हो
तुम  मेरी  स्मृतियों  मे आती तो हो 
पर, एक बीते पल से टकरा कर लौट जाती हो 
ऐसे ही पड़े रहते हैं वीरान कागज, 
लेखनी  भी तेरा नाम लिखने से पहले ही रो देती है.
 प्रेम- सागर सामने तेरे रख दिया था  मैंने,
 तुम भींग कर भी, अनुभूति  न कर सकीं 
 तुम मंजरी सी दिखती थी , मैं बस तुम्हें निहारता रहता था,
 पर तुम आँखों की भाषा  को न कभी पढ़  सकीं .
 कभी झूठ तो कभी सच्ची प्रतिमा लगती हो तुम,
 प्रथम दृष्टि जब तुम्हें देखा तो तुम निश्छल लगी थी,
 सत्य की एक झीनी परत उतारने पर ,मेरे दिल को आघात लगे थे
फिर भी विश्वास क्यों हो रहा था ,मानो 
सारी व्यस्तता के मध्य भी देखो ,तेरे जाने के बाद भी 
समय नहीं मिलता तेरी यादों से ,
किसको सच मानू ,तुम्हारे चले जाने को,
तुम्हारे न समझने को ,
या फिर मेरी एक तरफ़ा सोच के सीमित दायरों को ???????????????


दिनेश सक्सेना
 

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