कविता
काल खंड
मेरे नयनो में
स्वप्न बन के वो रहती है
आज भी............................
हृदय वीणा के तारों मे
सप्तम स्वर सी गूँजती है तू
आज भी...............................
तेरे पदचाप की मंद आहट से
ये हृदय मेरा मंद मंद सा धड़कता है
आज भी..........................................
शरीर की शिराओं में लहू बन के
प्रेम तेरा झरने सा कलकल करता है
आज भी........................................
मध्यम-मध्यम सुगन्धित तेरे शरीर से
घर आँगन मेरा महकता रहता है
आज भी .......................................
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