शुक्रवार, 14 जुलाई 2017

मंथन

कविता 



काल खंड 



मेरे  नयनो  में  
स्वप्न  बन के वो रहती  है
आज भी............................

हृदय वीणा के तारों मे  
सप्तम स्वर  सी गूँजती  है तू
आज भी...............................

तेरे पदचाप  की मंद आहट से
ये हृदय  मेरा मंद मंद  सा  धड़कता है
आज भी..........................................

शरीर  की शिराओं  में लहू बन के
प्रेम तेरा झरने सा कलकल करता  है 
आज भी........................................

मध्यम-मध्यम सुगन्धित  तेरे शरीर से
घर आँगन मेरा महकता रहता है
आज भी .......................................

दिनेश सक्सेना

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