शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2014

मंथन

कविता 


आओ हम तुम एक हो जायें

 


तुम खुद को पाओ मुझमें
मै खुद को पाऊँ तुझमे
न तुझको शिकायत मुझसे हो
न मुझको शिकायत तुझसे हो
कुछ ऐसा तुम भी करो
कुछ ऐसा मै भी करूँ
तुमको तुम्हारा ईश्वर मिल जायें
मुझको मेरा ईश्वर मिल जायें
तुम अपनी कमियाँ मुझमे देखो
मै अपनी कमियाँ तुममे देखूँ
आओ इक दूजे का दर्पण बन जायें
आओ हम तुम एक हो जायें
कितनें बाजार सजे तन के है,
तन मिलतें हैं रोज यहाँ
आओ मन का बाजार सजायें,
इक दूजे के मन से मन को मिलायें
आओ हम तुम मन से एक हो जायें
इक दूजे का दर्पण बन जायें



………… रेनू सिंह


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