कविता
ओ सखी
जान पहचान नहीं है ,
फिर भी पहचानी सी लगती हो
छायांकन हो या कोई स्वप्निल सी
पर तुम सदृश्य नहीं हो मुझको को
सुन्दर हो या सुकोमल हो, क्या हो ?
कैसी हो क्या -- क्या सोचू मै
सरस-- पराग --सी लगती हो तुम
हो कल्पना लोक मे कविता सी
या वसी हो मेरा मन आँगन मै
हो कोई सुरभित सुगंध सी
या नील गगन मे शशी शेखर सी
नाज़ुक सी शरमाई सी लगती हो तुम
कभी तीखे नयनों वाली सी दिखती हो
कभी सावन कि झडी सी लगती हो
कभी तुम प्रस्तुत मेरे निज मन मे
उषा कि प्रथम किरण सी वसती हो
तुम कभी उलझी सी दिखती हो
कभी तुम सुलझी सी लगती हो
कौन हो तुम कुछ तो दो परिचय
बिन परिचय कैसे पहचानू सखी
दिनेश सक्सेना
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें