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गुरुवार, 6 मार्च 2014
मंथन
कविता
ये ज़िंदगी
कभी वक़्त के साथ चलने की भागम-भागी
तो कभी सलीके से जीने की उलझन
छीन लेती है ज़िंदगी से उसकी की मुस्कान
कभी-कभी बेसलीका पीछे भी रहा कीजिये
मुस्कराने के लिये
देखा है मैंने बेसलीका जीकर बहुतों को मुस्कुराते हुये
...............रेनू सिंह
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