शुक्रवार, 14 मार्च 2014

मंथन

कविता 

शर्मीली 


जहान मे मित्र मेरा एक जो बहुत शर्मीला है
बैठी है इस अभिमान मे कि वह बहुत हसीं है

पड़ी एक बार मेरी नज़र जो उनपर भूल से
वह सोचने लगी कि रुख उसका जहीन है

वह समझती यूँ सब उससे ही मुखातिब है
अपनी नज़र को वह माने बहुत महीन है

जोड़ रही वह मुझसे वास्ता बिन बात ही
बस उसका यही अंदाज़ तो शानदार है

खुदा जाने कैसे दिलाऊ मै उसको यकीन
उससे बहुत ही  अलहदा  मेरी जमीन है

दिनेश सक्सेना

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें