कविता
शर्मीली
जहान मे मित्र मेरा एक जो बहुत शर्मीला है
बैठी है इस अभिमान मे कि वह बहुत हसीं है
पड़ी एक बार मेरी नज़र जो उनपर भूल से
वह सोचने लगी कि रुख उसका जहीन है
वह समझती यूँ सब उससे ही मुखातिब है
अपनी नज़र को वह माने बहुत महीन है
जोड़ रही वह मुझसे वास्ता बिन बात ही
बस उसका यही अंदाज़ तो शानदार है
खुदा जाने कैसे दिलाऊ मै उसको यकीन
उससे बहुत ही अलहदा मेरी जमीन है
दिनेश सक्सेना
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें