गुरुवार, 13 मार्च 2014

मंथन

कविता 

साथी बचपन का 


सुखी रहो तुम सदा बस हमारी आशीष यही है
साथ हम ना हो तुम्हारे तब ये सोचना सही है

मित्रता को तो कभी फुर्सत से सोचा ही नही है
हम ना मिलेंगे कभी ऐसी सोच हो सक्ती नही है

बचपन मै खेले साथ पड़े साथ साथ ही सपने बुने
मिलन के पलों मै ऐसा लगा बने एक दूजे हम है

वह जब रूठ जाती थी तो मै उसे मनाता बहलाता था
हर पल दुःख मै तुम्हे पास अपने ही पाता सदा मै था

आँख में मेरी अश्रु देख् कर तुम सहम सी जाती थी
कभी कुछ ना माँगा हमेशा सब कुछ तुमने दिया था

तेरी सारी पीड़ा मुझे मिल जाएँ बस यही चहता में हूँ
खुश रहे तू सदा बस हृदय से मै रब से मांग्ता यहीहूँ

दिनेश सक्सेना  

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