रविवार, 16 फ़रवरी 2014

मंथन

कविता 

ज़ाम 


बना दिया जाम जब तुमने अपने हाथों से
प्रिये बोलों मैं इंकार करूँ भी तो कैसे
वैसे तो मै कब से जन्दगी से उब चूका
मेरा जीवन दुखों के सागर मे डूब चुका
पर प्रियतम आज सिरहाने  तुम आ बैठी
तो सोच रहा हूँ हाय प्राण त्यागूँ भी कैसे
लक्ष्य अंजाना पथ की भी पहचान नहीं
है रुकी रुकी से सांस पग मे जान नहीं
यदि तुम साथ जब तक चल रही हो मधुरे
मैं पराजय मान अपनी रुकु भी तो कैसे
बीच नदी गहरी है पतवारें भी टूटी है
यह नौका समझ लो अब डूबी या तब डूबी
पर यह जो तुमने पाल टांग दी आँचल की
अब  मैं प्राण लहरों से डरु भी तो कैसे
बना दिया जाम जब तुमने अपने हाथों से
प्रिये बोलों मैं इंकार करूँ भी तो कैसे   
    

दिनेश सक्सेना

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