रविवार, 16 फ़रवरी 2014

मंथन

कविता 

टुकड़ा चूडी का 


आज अकस्मात सूनी सी संध्या मे
जब मैं यूँ ही पुस्तकें देख रहा था
किसी काम मे जी बहलाने को
एक पूर्व किताब के बीच रखा था
तुम्हारी लाल चूड़ी का छोटा टुकड़ा
गोरी कलाइयों मे जो तुम पहने थी
उन्मादी रंग भरी मिलन  रात मे
मैं वैसा का वैसा ही रह गया सोचता
 सारी पिछली मिलन की  बातों को
कांच कोर से उस रंगीन  टुकड़े पर
उबरने लगी तुम्हारी सब लज्जित आकृतियाँ
मिलन बंधन मे चूड़ी का यूँ झर  जाना
निकल गयी सपने जैसी  वह मीठी रातें
याद दिलाने लगा यही लाल छोटा टुकड़ा

दिनेश सक्सेना

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