कविता
टुकड़ा चूडी का
आज अकस्मात सूनी सी संध्या मे
जब मैं यूँ ही पुस्तकें देख रहा था
किसी काम मे जी बहलाने को
एक पूर्व किताब के बीच रखा था
तुम्हारी लाल चूड़ी का छोटा टुकड़ा
गोरी कलाइयों मे जो तुम पहने थी
उन्मादी रंग भरी मिलन रात मे
मैं वैसा का वैसा ही रह गया सोचता
सारी पिछली मिलन की बातों को
कांच कोर से उस रंगीन टुकड़े पर
उबरने लगी तुम्हारी सब लज्जित आकृतियाँ
मिलन बंधन मे चूड़ी का यूँ झर जाना
निकल गयी सपने जैसी वह मीठी रातें
याद दिलाने लगा यही लाल छोटा टुकड़ा
जब मैं यूँ ही पुस्तकें देख रहा था
किसी काम मे जी बहलाने को
एक पूर्व किताब के बीच रखा था
तुम्हारी लाल चूड़ी का छोटा टुकड़ा
गोरी कलाइयों मे जो तुम पहने थी
उन्मादी रंग भरी मिलन रात मे
मैं वैसा का वैसा ही रह गया सोचता
सारी पिछली मिलन की बातों को
कांच कोर से उस रंगीन टुकड़े पर
उबरने लगी तुम्हारी सब लज्जित आकृतियाँ
मिलन बंधन मे चूड़ी का यूँ झर जाना
निकल गयी सपने जैसी वह मीठी रातें
याद दिलाने लगा यही लाल छोटा टुकड़ा
दिनेश सक्सेना
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