सोमवार, 10 फ़रवरी 2014

मंथन

कविता

दुलारते पल

अभिलाषाओं को दुलारते पल ,
ख्वावों की दुनिया संवारते पल !
साँझ हुई तो फिर उम्मीद जगी ,
इंतज़ार मे किसकी आँख लगी !
अपने ही जख्मों को सहलाकर ,
अपने ही भावों को बहला कर !
यादों के छिलके उतारते पल ,
शबनम से रातें निखारते पल !
गिरे हुए  पत्ते बुहारते  पल ,
रोज नए अंकुर निहारते पल !

दिनेश सक्सेना


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