शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

मंथन

कविता 

छटपटाहट 


हम याद मे तुम्हारी  छटपटाते रहे
तुम फ़िज़ाओं मे मस्ती लुटाती रही

सदियां गुजरती रही  ऑंसू थम न सके  
आओगी एक दिन यही ख़याल आते रहे

रही होंगी तुम्हारी भी कुछ  मजबूरियां
सोच कर यादें तुम्हारी  हम भुलाते रहे

हम से ही बेबफाई   तुम्हे रास यूँ आ गयी
कलंक हमारे नाम ओ वफ़ा यूँही लगाती  रही 

हम राह तुम्हारी देखते रहे रात और दिन
झूठी तुम तसल्ली बस यूँही दिलाती रही

दिनेश सक्सेना

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