मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014

मंथन

कविता

विस्तार तुम्हारा 


विस्तार कहाँ तक "तुम " को दूँ
प्रथम "तू "अपने को इंगित करता

ओर अंत "म"मुझको कहता है
"तू" तू ही रहेगा "म "मै ही हूँ

फर्क इतना ही है की पहले "तू"
और पीछे मै हूँ जोड़े की तरह

हम दोनों को, एक ही जोड़े है
उसको कुछ भी नाम दे दो तुम

कुछ भी समझ लो नया  तुम
प्यार ,प्रेम ,मोहब्बत संज्ञा दे दो

सब कुछ देखो और परखो खरा तुम
कसोटी पर कसो और देखो फिर तुम

एक नया रिश्ता ,एक नया बंधन
"तू"और "म " मिला" तुम" बनजा 

दिनेश सक्सेना 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें