सोमवार, 18 जुलाई 2016

मंथन



कविता 



मानसून 






बादलों से ,
घिरा आकाश 
झमाझम बारिश 
धरती का मिटाती 
बाँझ  पन!!

दूर तलक फेला 
सन्नाटा ,
आंतर का कोलाहल
पीडाओं की चुभन !!

अब तो आ जाओ 
मेरी प्रियेसी 
निंद्रा को रोंधकर 
आओ फिर सजा ले 
अपनी  संध्या 
इस बारिश !!

या इंतज़ार करूँ 
आंतर के आँगन मे 
अपने ग़मों  की
महफ़िल जमाने का !!

दिनेश सक्सेना 








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