गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

मंथन

कविता 



बहने दो 



पिघल कर बहने दो
बर्फ़ होते सपनों को
कि
बनते रहें
आँखों में उजालों के नए प्रतिबिम्ब
छूने दो
मदमस्त पतंगों को
अंबुज की हदें
कि गढ़े जाएँ
ऊँचाई के नित नए प्रतिमान
बढ़ने दो
शोर उमँगो का
कि
घुलते रहें
रोशनी के हर नए रंग
ज़िन्दगी में
हर अँधेरे के विरुद्ध।


दिनेश सक्सेना


2 टिप्‍पणियां:

  1. सपने पिघल पर बाह जाएँ तभी सुख है .... क्योंकि सपने बस सपने ही होते हैं .... शानदार रचना है सर II

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  2. मिश्रा जी फ्रायड ने कहा भी है की स्वप्न इच्छा पूर्ती का एक साधन मात्र है ,किन्तु जब स्वप्न सच होते प्रतीत होते है तभी पिघलते भी है अन्यथा अचेतन मन मे एक ग्रंथि के रूप मे समां जाते है और व्यक्ति अचेतन और चेतन के मध्य अवचेतन द्वारा सम्पूर्ण जीवन मे पिसता ही रहता है ! हार्दिक धन्यवाद !

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