शुक्रवार, 28 मार्च 2014

मंथन

कविता

हम


पहले आरजू थी ज़िंदगी में ,ज़िदगी फूलों सी हो
कम्बख्त आज तो आरज़ूओं में ज़िंदगी ही डूब गई
वो लूटते रहे हमें बन हमारे हमराज, हमराह
हमारी ख़ुमारी तो देखिये, हम उन्ही के लिए
गलियों में नाचते गाते और चिल्लाते रहे
जो आज तक लूटते रहे, हम उन्ही का गुण गाते रहे
बच्चा-बच्चा लड़ा इस देश के लिए
और ये नेता देश को बाँटते रहे
बहते लहू इनको दिखते नहीं
रंग अपने घरों में ये लगाते रहे
मांग उजड़ती रही, लाज लुटती रही
ये तिरंगें का कफ़न चढ़ाते रहे
अपनी महफ़िलों में बेबसों को नचाते रहे
सो चुके हो बहुत अब तो जाग जाओ
त्याग कर इस ख़ुमारी को
बहार घरों से तो आओ
सोते रहे तो रात होगी न ख़त्म
सपनों का सूरज न मुस्काएगा
लड़ चुके दुश्मनों से बहुत आज कल
अब इनसे लड़ो और इनको हराओ
आरजू जो अधूरी रही आज तक
उस आरजू-ए-भारत को खुद ही बनाओ
मुर्दे नहीं हैं जो समशान तक भी
चलने को हमको कंधे चाहिये
ज़िंदगी फूल बन जायेगी
ज़िंदा है हम पहले ये तो दिखाये......

.रेनू सिंह

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