बुधवार, 12 फ़रवरी 2014

मंथन

कविता

मंजिल

जहाँ मेरी कोई पहचान नहीं ,
वँहा मेरा नया आशियाना है!
जहाँ जरूरत नहीं अपनी है,
वहाँ वहाँ मेरा ठीकाना  है!
इसी कश्मकश मे मन है,
फिर भी मेरा मन तडफता है!
मंजिल मेरी दूर थी इतनी ,
रस्ते मे ही शाम हो गयी !
कोई साथी ना मिला मुझे ,
कोई हमसफ़र ना मिला !
जिंदगी मंजिल तक पहुँचती कैसे,
रहा मे काँटे थे और  मन था अकेला !
विश्वास डोलने लगा मंजिल बीच राह,
तूफ़ान इतने उठे कि विचलित हुआ मै !
हिम्मत बहुत बटोरी मन समझाया ,
मंजिल मेरी दूर थी इतनी!
रास्ते मे ही शाम हो गयी ,
पोर पोर पीर हुयी इतनी!
पाँव पाँव हुए छाले इतने ,
मंजिल मेरे  दूर थी इतनी!
रास्ते मे ही शाम हो गयी !!!

दिनेश सक्सेना

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