शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

मंथन

कविता

याद रुलाती रही


आँख रह रह कर बरसती रही
हम भुलाते रहे याद आती रही
आत्मा सुलगी धुंआ सा छागया
आँख भीगी प्यासा कुआँ पा गया
रोते रोते कुछ बात याद आ गयी
नीर बहता रहा तुम मुस्कुराती रही
गोधूली मे डाल पर मंद मंद चलती हवा
फिर मुझे अपलक किसी ने देखा
मुड़ कर देखता हूँ तो कोई नहीं
मेरी छाया मुझको चिढ़ाती रही
एक छायांकन है एक  है  दर्पण
जब भी होता है किसी से सामना
मैं समझ नहीं पाता कि मैं कौन हूँ
आकृति उलझनों को बढ़ाती रही

दिनेश सक्सेना

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