मंगलवार, 5 अगस्त 2014

मंथन,

कविता 


याद आई फिर मुझे


याद आई फिर मुझे तेरी वो मुलाकात
तेरा देखकर मुझे मुस्कुराना
और मेरा खुद को आश्चर्य से देखना
अपनी कमियों को ढूँढना
और सोचना तुम मुस्कुराई क्यूँ

समझ से परे था सखी
वो मित्रता का प्रथम आगाज़
धीरे-धीरे करीब आई परिचय हुआ
बैठने लगे साथ-साथ
टूटने लगी एक ही रोटी
दोनों की उँगलियों से
मुस्कुराने लगा फिर से बचपन
बढ़ने लगा विश्वास
सजने लगे जीवन के सपने
सुख दुःख मे चलने लगे
मिलाते हुये कदमों से कदम
सिमट गयी सारी दूरियाँ
बाहें कंधों पर आगये
मिलने लगे हर दिन गले
होली और ईद की तरह
दूर क्षितिज मे बुनने लगे सपने
होने लगी बीच हमारे वो भी बातें
जो कभी नही कर पाते है
रिश्ते खून के एक दूजे से
प्रगाढ़ हो गया
गहरे समुंद्र सा प्रेम हमारा
जिसमे घूमने लगे
बैठ मन की कश्ती में
एक दिन वो भी आया
ले सात फेरे तुम चली गई
और छोड़ गई पास मेरे
यादों का एक विस्तृत आकाश
और उस आकाश मे वो कोना
जहाँ आज भी तुम हो मै हूँ बैठी
पकडे एक दूसरे की कभी न छूटने वाली बाँहें
महक रही है जहाँ आज भी
हमारी मित्रता की खुश्बु
...............रेनू सिंह

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