कविता
घायल दिल
उकताई रात्री ने
उपन्न किया एक और
आवारा सूरज
प्रथम भोर से
अंत संध्या तक
भटकता ,उलझता रहा
इस आशा मे
कोण बदल बदल कर
देखता रहा क्षितिज को
मिल जाये कही आश्रय !!
पर किसी ने ना दी दृष्टि आभार मे
हर कोई भोग करता रहा प्रकाश का
झुलसता रहा दिन भर
घृणा आने लगी, उनके स्वार्थ पर
अपनी ही आँखों के अश्रु से
समुन्दर बनाया
डूब मारा उसी मे जाके
तुम्हारा साथ होता तो..............
बारिश कि मानिंद पुलकित होता
अब तो तुम छोड़ गयी
अब न मै रहा न तुम रही !!
दिनेश सक्सेना
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