सोमवार, 25 जुलाई 2016

मंथन


कविता 


घायल दिल 




उकताई रात्री ने 
उपन्न किया एक और
आवारा सूरज 
प्रथम भोर से 
अंत संध्या तक 
भटकता ,उलझता रहा 
इस आशा मे 
कोण बदल बदल कर 
देखता रहा क्षितिज को 
मिल जाये कही आश्रय !!


पर किसी ने ना दी दृष्टि आभार मे 
हर कोई भोग करता रहा प्रकाश का 
झुलसता रहा दिन भर
 घृणा आने लगी, उनके स्वार्थ पर 




अपनी ही आँखों के अश्रु से 
समुन्दर बनाया 
डूब मारा उसी मे जाके 
तुम्हारा साथ होता तो.............. 
बारिश कि मानिंद पुलकित होता 
अब तो तुम छोड़ गयी 


अब न मै रहा न तुम रही !!


दिनेश सक्सेना

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