मंगलवार, 26 सितंबर 2017

एहसास

अनकही 


मौन



'मौन' , शब्द जितना संक्षिप्त मायने उतने ही विविध और विस्तृत. अपने साथ हो रहे अन्याय पर मौन कमजोरी है तो किसी की बेमतलब टिप्पनी पे मौन परीपक्वता की निशानी.
ठीक से बोल ना सकने वालो के लिए यही मौन दबी हुई भावनाओं का ज्वार है तो वहीं चंचल और वाचाल प्रवृत्ति के लोगों के लिए मौन होना एक परीक्षा के साथ ही उनमे घर कर रही उदासी की पेहचान और किसी बात पर अपना विरोध जताने का तरीका भी है .
मौन स्वीकृति है तो कभी अस्विकृती भी . यह अभीव्यक्ति है तो आसपास की चीजों से विरक्ति भी . यही मौन कई बार कुछ समस्याओं को जन्म देता है तो कई बार इसी मौन के कारण कई परेशानियों को टाला जा सकता है.
कई बार किसी के इसी मौन के कारण कई सवाल निरूत्तरित रह जाते हैं तो कभी मौन होकर कई प्रश्नो के जावाब खुद -ब - खुद मिल जाते हैं
शायद इसिलिये मौन साधना भी है और गूढ भी..

प्रतीक्षा सक्सेना "दत्ता "





शुक्रवार, 15 सितंबर 2017

मंथन

कविता 


आशा - निराशा

 

शब्द मेरे बेमायने हैं...
जब तक वो तुम्हारे अर्थ ना बने..
अभीव्यक्ति मेरी मूक है ...
जब तक वो तुम्हारे एहसास ना बने..
संघर्ष मेरा जाया है..
जब तक वो तुम्हारी सफलता ना बने ...
यूँ तो कहते हैं के प्यार को अल्फाजों की दरकार नहीं...
फिर भी तुम बोलो तो मेरे अरमानो को परवाज मिले ...
मैं कब तक इस उम्मीद को लेकर चलूँ...
कि एक दिन हमारा शब्दआर्थ भी बदलेगा भावार्थ में...
कुछ प्यार में, कुछ तकरार में ...
आकर बोलो तुम कि ये अच्छा है..ये खराब...
कभी तो दो मुझे अपने पूरे दिन का हिसाब...
ज़िद, फरमाईश, रूठने -मनाने का पन्ना ...
कभी तो शामिल होगा हमारे भी रिश्ते की किताब में...
हर संभव जतन कर रही हूँ इसी आस में...
तो अब और परीक्षा ना लो मेरे धैर्य की...
उठो और मायने दो मेरे हर शब्द को...
खोलो अपने मन के बंद दरवाजे..
निकालो उसमे से अपनी भावनाओं के खजाने...
मेरे संघर्ष को बना दो सफलता...
कर दो बारिश मुझ पर...
अपने खट्टे -मीठे एहसासों की...
बहुत हुई मूक अभिव्याक्ति...
अब सहना मेरे बस की बात नहीं...
कुछ तुम बोलो, कुछ मैं बोलूँ...
अपनी बातों की बारात सजे..
.


प्रतीक्षा सक्सेना "दत्ता "




शुक्रवार, 14 जुलाई 2017

मंथन

कविता 



काल खंड 



मेरे  नयनो  में  
स्वप्न  बन के वो रहती  है
आज भी............................

हृदय वीणा के तारों मे  
सप्तम स्वर  सी गूँजती  है तू
आज भी...............................

तेरे पदचाप  की मंद आहट से
ये हृदय  मेरा मंद मंद  सा  धड़कता है
आज भी..........................................

शरीर  की शिराओं  में लहू बन के
प्रेम तेरा झरने सा कलकल करता  है 
आज भी........................................

मध्यम-मध्यम सुगन्धित  तेरे शरीर से
घर आँगन मेरा महकता रहता है
आज भी .......................................

दिनेश सक्सेना

गुरुवार, 13 जुलाई 2017

मंथन

कविता 


कालचक्र 



न तुम अब चिंतन मे आती हों,
न ही तुम अब लेखनी मे बन्ध पाती हो
तुम  मेरी  स्मृतियों  मे आती तो हो 
पर, एक बीते पल से टकरा कर लौट जाती हो 
ऐसे ही पड़े रहते हैं वीरान कागज, 
लेखनी  भी तेरा नाम लिखने से पहले ही रो देती है.
 प्रेम- सागर सामने तेरे रख दिया था  मैंने,
 तुम भींग कर भी, अनुभूति  न कर सकीं 
 तुम मंजरी सी दिखती थी , मैं बस तुम्हें निहारता रहता था,
 पर तुम आँखों की भाषा  को न कभी पढ़  सकीं .
 कभी झूठ तो कभी सच्ची प्रतिमा लगती हो तुम,
 प्रथम दृष्टि जब तुम्हें देखा तो तुम निश्छल लगी थी,
 सत्य की एक झीनी परत उतारने पर ,मेरे दिल को आघात लगे थे
फिर भी विश्वास क्यों हो रहा था ,मानो 
सारी व्यस्तता के मध्य भी देखो ,तेरे जाने के बाद भी 
समय नहीं मिलता तेरी यादों से ,
किसको सच मानू ,तुम्हारे चले जाने को,
तुम्हारे न समझने को ,
या फिर मेरी एक तरफ़ा सोच के सीमित दायरों को ???????????????


दिनेश सक्सेना
 

सोमवार, 3 जुलाई 2017

मंथन,

कविता 


ऋतु 



ऋतु नहीं हूँ मै 
जो बदल जाऊं 
और न हूँ मै 
रुख हवा का 
जो किधर भी मुड़ जाऊं  

हूँ  स्थिर मै 
अथाह समुन्दर सा 
बाहें पसारे 
प्रतीक्षारत 
तुम्हारे लिये |

तुम आकर समाना 
मुझमे कभी 
नदियों कि मानिंद


दिनेश सक्सेना




मंथन,

कविता 


काली स्याही 


घनघोर काली स्याही से                        
लिखी है विधाता 
ने मेरी नियति 
है नहीं 
एक भी हर्फ़ 
रौशनी का 
तुम जो 
बनना चाहती 
हो परछाई मेरी 
सुनो नीव के 
पत्थरों कि .......................
परछाई नहीं 
हुया करती 


दिनेश सक्सेना

शुक्रवार, 30 जून 2017

एहसास

एहसास

एक चुकती पीढ़ी 

आनेवाले 5/10 साल में एक
पिढी ये संसार छोड़कर जानेवाली है !
कटु लेकिन सच है ये......
इस पीढ़ी के लोग बिलकुल अलग ही हैं........
रात को जल्दो सोनेवाले
सुबह जल्दी जागनेवाले
भोर में घूमने निकलने वाले
आंगन और पौधों को पानी देने वाले...
देवपूजा के लिए फूल तोड़नेवाले
पूजा अर्चना करने वाले
पापभीरू ......
मंदिर जानेवाले
रास्ते में मिलनेवालों से बात करनेवाले
उनका सुख दु:ख पूछनेवाले
दोनो हाथ जोडकर प्रणाम करने वाले....
पूजा होये बगैर
अन्नग्रहण न करनेवाले...
उनका अजीब सा संसार
तीज त्यौहार, मेहमान शिष्टाचार ,
अन्न धान्य सब्जी भाजी की चिंता,
तीर्थयात्रा ,रीतीरिवाज
के इर्द गिर्द घूमने वाले !
पुराने फोन पे ही मोहित
फोन नंबर की पचास डायरी
मेंटेन करने वाले...
हमेशा रॉन्ग नम्बर लगाने्वाले....
लेकिन रॉन्ग नम्बर से भी बात कर लेने वाले !
दिनभर में तीन चार पेपर पढ़ने वाले
विको वज्रदंती
इस्तेमाल करनेवाले...
हमेशा एकादशी याद रखने वाले
भगवान् पर प्रचंड विश्वास रखनेवाले...
समाज का डर पालनेवाले..
पुरानी चप्पल खील ठोक कर चलानेवाले..
पुरानी बनियान बार बार पहनने वाले..
गर्मियों में अचार पापड़ बनाने वाले...
घर का कुटा हुआ हल्दी मसाला इस्तेमाल करनेवाले...
नज़र उतारनेवाले ...
सब्जीवाले से 2 रूपये के लिए झिक झिक करनेवाले...
साल में एकाध मूवी देखने वाले...
ये सभी लोग धीरे धीरे हमारा साथ छोड़ के जा रहे हैं ....
क्या आपके घर में भी ऐसा कोई है ?
यदि हाँ तो...
उनका ख्याल रखें ;
अन्यथा एक महत्वपूर्ण सीख उनके साथ ही चली जायेगी ।उनसे सीखें
क्या सीखें......?
वो है
“संतोषी जिंदगी’’ !

दिनेश सक्सेना 

कविता 





"प्रियेसी" 


सौन्दर्य की अभाव ,
और गुणों का अकाल  .....
तो फिर!
प्रेम का श्रोत क्या था ???
अकस्मात  ही... 
निगल जाते हैं मुझे ,
तुम्हारे वोह शब्द ,
जिन्हें मैं न निगल सका  .....
धरा का ,तड़फना
और 
बादलों का मात्र बरस जाना 
प्रेम नहीं है प्रियेसी....
प्रेम -- अर्चना  है, अराधना  है, साधना  है 
केवल  !
मिलन ही नहीं ,
बिरह  और वेदना  भी है.....
त्याग और समर्पण भी है ......
आत्मा  से आत्मा  तक पहुंचना ,
पूर्ण आकार है प्रेम का .....
न कि किंचित  तृष्णा-तृप्ति ।।

दिनेश सक्सेना 

सोमवार, 29 अगस्त 2016

मंथन

कविता



सखी 




सखी,
नहीं विस्मृत कर पाया
तेरे प्रथम मिलन के क्षणों को
जब प्रथम दिन प्रथम बार
विघालय में मिले थे
तेरा वह अलकों को झुकाना
फिर उठाना,आगे बढ़ जाना


सखी,
सब कुछ पूर्व जैसा ही तो है
कुछ नहीं परिवर्तन अभी तक
सब हृदय पटल पर अंकित है
पैतालीस वर्ष के अंतराल के सिवा
क्या बदला है आज भी
बस अब अलग अलग ही तो है


सखी,
तेरे प्रेम स्पर्श ने ...........
मुझे क्या से क्या बना दिया
मेरी भावनाओं को समाहित कर अपने में
मुझे नया रूप दे दिया........
तूने मेरी साँसों को छंदों बाँध
एक नया मधुर गीत दे दिया


सखी,
हाथ पकड़ तूने ही दिखायी मुझे
सुंदरता जीवन की,मरुभूमि में
कुछ लेने देने,कुछ खोने पाने की
दोनों को लेशमात्र,अपेक्षा न थी
तुमने ही हंसना रोना सिखाया
इस जग के कोलाहल में....


सखी,
मुझे प्यार है तुम्हारे तुम से...
जो तुम नहीं,तो मैं भी निष्प्राण हूँ
जो तुम में समा जाता है अपार
सच मुझे प्यार है तुमसे......
जो मेरे जीवन में लाता बहार


दिनेश सक्सेना

मंथन


कविता 



सखी 



कर्तव्य के सतपथ पर नहीं जानता की
वह कौन है...............
कोई शक्ति संजोय मानवाकृति या
कोई देवी...................


जब जब ....................
डूबा घोर अन्धकार में
ज्योति पुंज बन,
आशा की किरण जगाती हो


जब जब हृदय.............
जला मेरे क्रोध ज्वाला में
शशि बन.....................
शीतल शान्ति सी दे जाती हो


घायल ...................
पड़ा महासमर भूमि मे
विजया बन................
विजय पथ दर्शाती हो


दीप चक्षु युक्त अधिपति मेरी
या...........................
कोमल हृदय स्वप्न पथ पर जब भी मिलना मुझसे
वादा.....................
मैं मेरे मन की सुंदरता दे करूँ स्वागत तेरा


दिनेश सक्सेना


मंगलवार, 26 जुलाई 2016

मंथन

कविता 

रूप ------यौवन  



 



तुम केवल विषय हो, या
कल्पना हो तुम स्वप्न लोक  की
रूप -योवन तुम्हारा देख ...
मन्त्र मुग्ध हूँ ...................... 
        






स्याह जुल्फें ,कजरारे नयन ,
चंचलता है निगाहों मे 
चेहरे का श्रृंगार ऐसा 
खूबसूरती निखर निखर जाये 



नजाकत से भरी हुयी नखरीली 
सी तेरी मुस्कान ,नूरानी चेहरा 
है यह, या चाँद जमीन पर उतर आया 
हसीं आदयें सब कुछ मन को भाया 



क्या तुम्हारी खुशियों के लिये बुनूँ मैं शब्दों के
अदाओं के मायाजाल या सीधे शब्दों में कह दूँ 
 तुमको तुम्हारे शब्दों में उत्पन्न होते है जो भाव, 
अंतर  गहराईयों से चाहूँ तुम्हारे लिये सुख, समृद्धी 



जब भी मैं आऊं, तुमको हँसता हुआ ही पाऊं
कभी ह्रदय तल  कि गहराई से  चाहूँ तुमको
कभी मांगू  शान्ति कि असीमित दुनियां 
तुम्हारे चंचल नखरीले सौन्दर्य के लिए !!!!!!!!!! 





दिनेश सक्सेना 

सोमवार, 25 जुलाई 2016

मंथन


कविता 


घायल दिल 




उकताई रात्री ने 
उपन्न किया एक और
आवारा सूरज 
प्रथम भोर से 
अंत संध्या तक 
भटकता ,उलझता रहा 
इस आशा मे 
कोण बदल बदल कर 
देखता रहा क्षितिज को 
मिल जाये कही आश्रय !!


पर किसी ने ना दी दृष्टि आभार मे 
हर कोई भोग करता रहा प्रकाश का 
झुलसता रहा दिन भर
 घृणा आने लगी, उनके स्वार्थ पर 




अपनी ही आँखों के अश्रु से 
समुन्दर बनाया 
डूब मारा उसी मे जाके 
तुम्हारा साथ होता तो.............. 
बारिश कि मानिंद पुलकित होता 
अब तो तुम छोड़ गयी 


अब न मै रहा न तुम रही !!


दिनेश सक्सेना

गुरुवार, 21 जुलाई 2016

मंथन


कविता 



आवारा  मन 



आज बरखा का 
रुख देख,आवारा मन क्यों भटका 
कभी इस गली ,कभी उस गली 
कभी बारिश से भीग 
कभी फूलों की महक में डूबा 
कभी घनघोर रातों मे भटका 
कभी इस गली ,कभी उस गली 


कभी उड़न खटोले बैठा मन 
कभी नाव की सैर करता मन 
कभी देख मौसम की हलचल 
कभी सुनता झरने की कलकल


कभी फुहार मे भीगता मन 
कभी ठण्ड से सिहरता मन 
कभी प्यार से तुम बुलाती 
कभी अगन से तुम झुलसाती 






दिनेश सक्सेना  




सोमवार, 18 जुलाई 2016

मंथन



कविता 



मानसून 






बादलों से ,
घिरा आकाश 
झमाझम बारिश 
धरती का मिटाती 
बाँझ  पन!!

दूर तलक फेला 
सन्नाटा ,
आंतर का कोलाहल
पीडाओं की चुभन !!

अब तो आ जाओ 
मेरी प्रियेसी 
निंद्रा को रोंधकर 
आओ फिर सजा ले 
अपनी  संध्या 
इस बारिश !!

या इंतज़ार करूँ 
आंतर के आँगन मे 
अपने ग़मों  की
महफ़िल जमाने का !!

दिनेश सक्सेना 








मंथन


कविता 


उपेक्षा 


अपना
समग्र ,अर्पण -समर्पण
करके तुम्हें
भले ही लिखूं
तुम्हारे लिये
कितनी भी
प्रणय रचनायेँ
ज्ञात मुझे है
नहीं प्रेषित हो पायेंगी
तुम्हारे ह्रदय पटल तक

त्याग देंगी
यह प्राण अपने
तुम्हारी उपेक्षा की
देहलीज़ पर 


दिनेश सक्सेना 








 


शुक्रवार, 15 जुलाई 2016




रहस्य 


धर्म और विज्ञान 


एक माँ अपने पूजा-पाठ से फुर्सत पाकर अपने विदेश में रहने वाले बेटे से फोन पर बात करते समय पूँछ बैठी: ... बेटा! कुछ पूजा-पाठ भी करते हो या फुर्सत ही नहीं मिलती?

बेटे ने माँ को बताया - "माँ,  मैं एक आनुवंशिक वैज्ञानिक हूँ ...
मैं अमेरिका में मानव के विकास पर काम कर रहा हूँ ...
विकास का सिद्धांत, चार्ल्स डार्विन... क्या आपने उसके बारे में सुना है ?" 

उसकी माँ मुस्कुरा कर बोली - “मैं डार्विन के बारे में जानती हूँ, बेटा ... मैं यह भी जानती हूँ कि तुम जो सोचते हो कि उसने जो भी खोज की, वह वास्तव में सनातन-धर्म के लिए बहुत पुरानी खबर है...“

“हो सकता है माँ !” बेटे ने भी व्यंग्यपूर्वक कहा ...

“यदि तुम कुछ होशियार हो, तो इसे सुनो,” उसकी माँ ने प्रतिकार किया...
... “क्या तुमने दशावतार के बारे में सुना है ? विष्णु के दस अवतार ?” 

बेटे ने सहमति में कहा "हाँ! पर दशावतार का मेरी रिसर्च से क्या लेना-देना?"

माँ फिर बोली: लेना-देना है मेरे लाल... मैं तुम्हें बताती हूँ कि तुम और मि. डार्विन क्या नहीं जानते हैं ?

पहला अवतार था मत्स्य अवतार, यानि मछली | ऐसा इसलिए कि जीवन पानी में आरम्भ हुआ | यह बात सही है या नहीं ?” 

बेटा अब और अधिक ध्यानपूर्वक सुनने लगा |

उसके बाद आया दूसरा कूर्म अवतार, जिसका अर्थ है कछुआ, क्योंकि जीवन पानी से जमीन की ओर चला गया 'उभयचर (Amphibian)' | तो कछुए ने समुद्र से जमीन की ओर विकास को दर्शाया |

तीसरा था वराह अवतार, जंगली सूअर, जिसका मतलब जंगली जानवर जिनमें बहुत अधिक बुद्धि नहीं होती है | तुम उन्हें डायनासोर कहते हो, सही है ? बेटे ने आंखें फैलाते हुए सहमति जताई |

चौथा अवतार था नृसिंह अवतार, आधा मानव, आधा पशु, जंगली जानवरों से बुद्धिमान जीवों तक विकास |

पांचवें वामन अवतार था, बौना जो वास्तव में लंबा बढ़ सकता था | क्या तुम जानते हो ऐसा क्यों है ? क्योंकि मनुष्य दो प्रकार के होते थे, होमो इरेक्टस और होमो सेपिअंस, और होमो सेपिअंस ने लड़ाई जीत ली |" 

बेटा दशावतार की प्रासंगिकता पर स्तब्ध हो रहा था जबकि उसकी माँ पूर्ण प्रवाह में थी...

छठा अवतार था परशुराम - वे, जिनके पास कुल्हाड़ी की ताकत थी, वो मानव जो गुफा और वन में रहने वाला था | गुस्सैल, और सामाजिक नहीं |

सातवां अवतार था मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम, सोच युक्त प्रथम सामाजिक व्यक्ति, जिन्होंने समाज के नियम बनाए और समस्त रिश्तों का आधार |

आठवां अवतार था जगद्गुरु श्री कृष्ण, राजनेता, राजनीतिज्ञ, प्रेमी जिन्होंने ने समाज के नियमों का आनन्द लेते हुए यह सिखाया कि सामाजिक ढांचे में कैसे रहकर फला-फूला जा सकता है |

नवां अवतार था भगवान बुद्ध, वे व्यक्ति जो नृसिंह से उठे और मानव के सही स्वभाव को खोजा | उन्होंने मानव द्वारा ज्ञान की अंतिम खोज की पहचान की |

और अंत में दसवां अवतार कल्कि आएगा, वह मानव जिस पर तुम काम कर रहे हो | वह मानव जो आनुवंशिक रूप से अति-श्रेष्ठ होगा |

बेटा अपनी माँ को अवाक होकर सुनता रहा |
अंत में बोल पड़ा "यह अद्भुत है माँ, भारतीय दर्शन वास्तव में अर्थपूर्ण है |"

वन्देमातरम ....!!!

...पुराण अर्थपूर्ण हैं | सिर्फ आपका देखने का नज़रिया होना चाहिए धार्मिक या वैज्ञानिक ?

दिनेश सक्सेना 



हास्य व्यंग 


"मद्य-शास्त्र"


मदिरापान को हमेशा एक अनुष्ठान या यज्ञ की  भावना में ही लेना चाहिए॥

जैसे गृहस्थ पुरुष यज्ञ रोज ना कर के, केवल कभी कभी ही करते है, वैसे ही मदिरापान भी केवल कुछ शुभ अवसरों पर ही करना उचित है॥

मदिरापान केवल प्रसन्नता की स्थिति में ही करने का विधान है॥

अवसाद की स्थिति में ऐसा यज्ञ करना सर्वथा वर्जित है, और जो इस नियम का उलंघन करता है,पाप का भागी होकर कष्ट  भोगता है ।।

यज्ञ  के लिए सवर्प्रथम शुभ दिन का चयन करे ॥

शुक्रवार, शनिवार और रविवार इसके उपयुक्त दिन है ऐसा शास्त्र में लिखा है किन्तु इसके अतिरिक्त कोई भी अवकाश का दिन भी शुभ  होता है ॥
यद्यपि सप्ताह के अन्य दिनों में यज्ञ करना उचित नहीं है किन्तु अत्यंत प्रसन्नता के अवसरों में किसी भी दिन इस यज्ञ का आयोजन किया जा सकता है , ऐसा भी विधान है ॥

यज्ञ करने का निश्चय करने के बाद समय का निर्धारण करें ॥
सामान्यतः यह यज्ञ सांयकाल या रात्रि में और अधिक से अधिक मध्य रात्रि तक ही करने का विधान है , रात्रि बहुत अधिक  नहीं होनी चाहिए ॥

अपवाद स्वरुप दिन में छोटा सा 'बियर रूपी' अनुष्ठान किया जा सकता है, किन्तु प्रातःकाल में इस यज्ञ  का करना पूर्णतः वर्जित है ॥

यज्ञ में स्थान का बहुत महत्त्व है, यद्यपि वर्जित तो नहीं है, लेकिन इस यज्ञ को गृह में न करना ही उचित है ॥
इस को करने का सर्वोत्तम स्थल क्लब अथवा 'बार' या 'अहाता' नामक पवित्र स्थान होता है ॥
स्थान का चयन करते समय ध्यान दे की वहां  दुष्ट आत्माए यज्ञ  में बाधा ना डाल सकें ॥

ये भी ध्यान रहे की यज्ञ  स्थल विधि सम्मत हो ॥

यज्ञ अकेले ना कर,अन्य साधू जनों की संगत में ही करना ही उचित होता है ॥

अकेले में किये गए यज्ञ से कभी पुण्य नहीं मिलता, बल्कि यज्ञ  करने वाला मद्य- दोष को प्राप्त होकर, 'शराबी' या 'बेवड़ा ' कहलाता है ॥

प्रसन्न मन से, शुभ क्षेत्र में बैठ कर, साधू जनों की संगत में, मधुर संगीत रुपी मंत्रो के साथ, शास्त्रोचित रूप से किये गए मदिरा पान के यज्ञ को करने वाला साधक, 'टुन्नता' के असीम पुण्य को प्राप्त होता है ॥

मदिरापान के समय, यज्ञ अग्नि से भी अधिक महत्पूर्ण जठरागनी को भी शांत करना अत्यंत आवश्यक है ॥

इसके लिए पर्याप्त मात्रा में भोज्य पदार्थ जिसे 'चखना' की उपाधि दी गयी है, लेकर बैठना ही उचित है। वैसे तो मुर्गा ही सर्वश्रेष्ठ माना गया है, किन्तु पनीर, काजू, मूंगफली, नमकीन या अपनी  इच्छानुसार कोई भी चखना लिया जा सकता है ॥

कुछ परम साधक तो सिर्फ नमक को ही पर्याप्त मानते हैं ॥

एक अन्य आवश्यक पदार्थ सिगरेट नामक दंडिका भी इस यज्ञ का महत्वपूर्ण अव्यव है ॥ 

जो मूर्ख पुरुष इस अग्नि दंडिका का सम्मान नहीं करते, वे अग्नि के श्राप को प्राप्त हो, अनेक कष्टों को  भोगते है ॥

'मद्यसूत्रम' नामक महाकाव्य में इसकी आधुनिक सेवन विधि विस्तार से समझाई गई है, जिसमे सर्वप्रथम खाली गिलास लेकर अपने हाथ सीधे करते हुए उसमे 30 एम् एल मदिरा डालें फिर अपनी स्वेच्छानुसार सोडा या कोल्ड ड्रिंक का थोडा मिश्रण करें फिर अंत में बर्फ के एक दो टुकड़े डालें इसे एक 'पेग' की उपाधि दी गई है ॥

अब उपस्थित साधकों की संख्या के बराबर ऐसे ही पेग तैयार करें व सब में वितरित करें ॥
इसके बाद एक ऊँगली गिलास में डाल कर बाहर एक दो बूंद छिडकें ॥
यह क्यों किया जाना है, इसका उल्लेख किसी शास्त्र में भी नहीं है ॥

तत्पश्चात सभी भक्तजन अपने ग्लास हाथ में लेकर एक दूसरे के गिलास से हलके से छुएं और  'चियर्स'  नामक मन्त्र का ज़ोर से उच्चारण करें ॥

ध्यान रखें यदि इस मन्त्र का उदघोष नहीं हुआ तो आपका पुण्य असंभव है।

परम ज्ञानी स्वामी श्री लंगटाचार्य द्वारा रचित 'मद्य संहिता'  में कुछ असुरी शक्तियों का भी वर्णन है जो इन साधकों के साथ बैठकर इनके पैसों पर इनके ही मद्य मुद्रासनों का भरपूर आनंद प्राप्त करते हैं ॥ 
इन्हें 'चखनासुर' की उपाधि दी गयी है ॥

ये असुर इन यज्ञ साधकों के चखने और कोल्ड ड्रिंक नामक सहायक पेय पदार्थ पर विशिष्ठ निगाह गड़ाए रहते हैं और उसे जल्द से जल्द हड़पने के प्रयास में रहते हैं ॥ कई अवसर पर तो भगवन 'बार देव 'के बिल में इन चखनासुरों का हिस्सा बेचारे साधक से भी अधिक रहता है ॥
बाबा लंगटाचार्य के हिसाब से मद्य प्रेमियों की नज़र में यह निकृष्ट प्राणी दरअसल एक बेहतरीन श्रोता भी होता है जो ऐसा दर्शाता है कि वह उपासक के हर प्रवचन को अपना सर्वस्व समझ कर ग्रहण कर रहा है ॥

ऐसे प्राणी एक और अच्छा कार्य करते हैं कि जब मद्ययज्ञ अपनी आहुति की ओर बढ़ता है और मद्य साधक अपने मद्यश्लोक उच्चारित करता है और 'साले दरुए' की  सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने की ओर अग्रसर होता है तब यही असुर जनता में हाथ जोड़कर आपके लिए अपना मुख सुंघाते हुए माफ़ी मांगता है और आपको उस संकट से निकलने में सहायक सिद्ध होते हैं ॥

इसके अलावा चखनासुर एक और परम धर्म निभाता है कि वो उल्टी होने, नाली में गिरने या अत्यधिक टुन्न मग्न मद्य यज्ञ साधक के चलने फिरने की असमर्थता में उसे घर तक छोड़ कर आता है तथा साधक के परिवारजनों से भरपूर सम्मान भी प्राप्त करता है ॥

इसी कारण से सदा इस यज्ञ में कम से कम एक असुर भी अपने साथ लिये जाने का प्रावधान भी किया गया है ॥

श्री लंगटाचार्य रचित  "मद्याचरण"  नामक ग्रन्थ में भी इस यज्ञ का उल्लेख पाया जाता है ॥
उसमे वर्णित है की साधना की उच्च अवस्था प्राप्त करने के इच्छुक मुनिजनों को यज्ञ तब तक करना चाहिए जब तक उच्च स्वर में कुछ परमादरणीय पारिवारिक सम्बन्ध बढ़ाते श्लोक स्वमेव मुख से प्रस्फुटित न होने लगें ॥

उन श्लोकों के पश्च्यात पूर्णाहुति में कुछ मन्त्र वाक्यों का उच्चारण आवश्यक है अन्यथा यज्ञ देवता कुपित होते हैं। कुछ प्रमुख मंत्राचरण निम्नलिखित हैं  :                              
1) आज तो चढ़ ही नहीं रही !!

2)  कल से पीना बंद !!                            
3) आज तो कम पड़ गयी, और मंगाए क्या ??

4) बार बंद होने का टाइम है तो क्या, अभी तो हमने शुरू की है !!

5) ये मत सोचना कि मुझे चढ़ गयी है !!

6) गाड़ी आज हम चलाएंगे !!

7) तुम बोलो कितने पैसे चाहिए ??

8) यार इस ब्रांड की बात ही अलग है !!

9) तू शायद समझ नहीं रहा !!

10) तुम आज से मेरे सब कुछ !!

11) यार तेरे अलावा ये दुनिया मेरे को समझ नहीं पाती !!

12) अब हम गाना गायेंगे !!

13) भाई तेरी स्टोरी ने तो सेंटी कर दिया !!

14) तुम बस बताओ कब चलना है ??

15) तू भाई है मेरा !!

आदि इत्यादि जैसे कुछ मूल मन्त्र हैं जिन्हें उच्चारित किये बिना कोई हवन पूर्ण नहीं होता ॥

तो परम प्रिय बंधुओं, अब संध्या बेला हो चुकी है, आप सभी को मद्य यज्ञ की पूर्ण विधि समझा दी गई है ॥

आशा है कि मद्य पान में अपना यथोचित योगदान देकर मद्य यज्ञ को सफल बनायेंगे और हम जैसे किसी चखासुर को भी अपने सानिध्य का सुअवसर प्रदान करेंगे ......... !!

चियर्स !!!


दिनेश सक्सेना 





बुधवार, 27 मई 2015

मंथन

कविता 


मन कर रहा है 


कब से प्रतीक्षा है तुमसे मिलने कि 
दीघ्र अंतराल के बाद आज. ……
बहुत मन कर रहा है तुमसे मिलने का 
मन को तो बहुत समझाया ……… 
पर दिल तड़फ उठा। .......... 
दिल को समझाया ……… 
तो आँखों ने झड़ी लगा दी  सावन की 
सावन को रोका तो साँसों ने तूफान ला दिया 
तूफ़ान को रोका तो दिमाग बोल उठा …
कब तक झूठ  का सहारा लोगे …… 
 बहुत याद आती है कबूल लो ....... 
मुश्किल हो जाएगी सम्हाल लो

दिनेश सक्सेना

गुरुवार, 23 अप्रैल 2015

मंथन

कविता 


इस्पाती आलिंगन 


तेरा  अनूठा प्रेम 
इस्पाती आलिंगन मे
बांधे हुय है मुझको | 
मैं मुक्त हूँ --------
ऐसा समझा मैंने अनेक बार 
किन्तु सदा बेचैनी मुझे है 
जैसे --------------------
बँधे  हुय  कठिन  से 
कठिनतर --------। 
दिन प्रतिदिन ----
रातों पर रातें ----
गुजर रही है 
चाहत है कि  मुक्ति पा जाऊ 
प्रेम-- जाल से , पर --------
तेरे प्रेम के कठोरतम आलिंगन कि 
जकरन ने ---------------------
नहीं दिखाई चाहत कि ----------
मुक्ति पा जाऊ --------------
मैं तुझे पुकारूं या न पुकारूं 
रुक रुक कर  सोचूँ 
दर्द दिया और --------------
इतने कसकर बाँधे  बंधन 
कि -------------------------
आहें भी औष्टों पर मेरे -----
मौन हुयी -------------------। 
समझ गया -------------------
जब चाहोगी मुक्त करोगी 
मेरे मुक्ति की विनती का 
यहाँ कोई मोल नहीं है ॥॥॥ 

दिनेश सक्सेना

रविवार, 19 अप्रैल 2015

मंथन

कविता 


खुल कर सांस ले


तू 
जीवन भरपूर जी
उसे उलझाने का 
प्रयास न कर 

मदहोश सपनो के
ताने बाने  बुन
उसमे अटकने की 
कोशिश न कर

बहते वक़्त के साथ 
तू भी अविरल बह 
उसमे डुबकी लगाने 
की कोशिश न कर 

आंतर मे चल रहे 
अंतर्द्वंद को विराम दे 
अकारण स्वयं से लड़ने की
कोशिश न कर 

थोडा तो
परमात्मा पर छोड़ दे
सब कुछ लेने की 
कोशिश न कर 

जो मिल गया 
उसी मे प्रसन्न रह 
जो शान्ति छीन ले 
उसे पाने की कोशिश न कर 

अपने हाथों को फैला 
खुलकर सांस ले 
अन्दर ही अन्दर घुटने की 
कोशिश न कर 

दिनेश सक्सेना









बुधवार, 15 अप्रैल 2015

मंथन

कविता 


सत्य --झूठ 


तुम जो कहो वह सत्य है 

मेरा सत्य …झूठ  है 

मै झूठ। …तू सत्य है 

यही आज की पैमाइश है 

विचार आगे बड़  चुके 

आत्मा मे भी घाव है 

तुम्हारी हठ से.……… 

अंतर मे  पीर है। …… 

सब कुछ सहन कर जाऊंगा 

झूठे तेरे तर्कों के आगे। .... 

तेरे पैरों तले ना  गिर पाउँगा 

आत्मा मे  घाव हो सह जाऊंगा 

तेरा अहित ना होने दूंगा। …। 

सब कुछ सहन कर जाऊंगा !!!!!!!!!!!!!!!


दिनेश सक्सेना

मंगलवार, 14 अप्रैल 2015

मंथन

कविता 


सुख दुःख 


सुख है दुःख है 
आता -जाता है 

पर प्रतीक्षा आज भी 

तुम्हारे दर्शन ,तुम्हारे श्रवण की 

दे दो एक दिव्य किरण साक्ष की 

तुम्हारे मधुर स्वर ,सम्भाषण 

सब है क्रमशः ,जो आज है 

यही वर्तमान है ,मत भटको 

मत टूटो ,न उदास हो 

जो आएगा कल ,खिल जायेगा जीवन 

जीवन वह गंगा है ,जो अविरल है 

विस्मित ,विव्हल ,विभ्रांत रहा दिग्भ्रमित 

न होने दूंगा मान तुम्हारा हेटा 

विश्वास रखो इतना जो तुमसे पाया 

उसके लिए शपथ  प्रतिज्ञ 

उठते गिरते प्रश्न अनेको ....  

जब भी सोचा तेरे जीवन हित  मे

पीछे पड़ गया बिना रीढ़  का शहर

दिनेश सक्सेना


गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

मंथन

कविता 



बहने दो 



पिघल कर बहने दो
बर्फ़ होते सपनों को
कि
बनते रहें
आँखों में उजालों के नए प्रतिबिम्ब
छूने दो
मदमस्त पतंगों को
अंबुज की हदें
कि गढ़े जाएँ
ऊँचाई के नित नए प्रतिमान
बढ़ने दो
शोर उमँगो का
कि
घुलते रहें
रोशनी के हर नए रंग
ज़िन्दगी में
हर अँधेरे के विरुद्ध।


दिनेश सक्सेना


शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2014

मंथन

कविता 

सीधे शब्द 


क्या तुम्हारी खुशियों के लिये बुनूँ मैं
शब्दों के, अदाओं के मायाजाल
या सीधे शब्दों में कह दूँ
नहीं अभी नहीं है मुझमें कोई भी भाव
न प्रेम, न दया, न करूणा, न घृणा के

पर रंग विहीन नहीं है हृदय मेरा मै जानूँ
जब पढ़ती हूँ तुमको तुम्हारे शब्दों में
उत्पन्न होते है जो भाव, वही तुम्हारे लिये है
और वही तुम्हारे शब्दों के लिये भी है
तुम भी हो इंसान, मै भी हूँ इंसान
अभी मृत नहीं है मुझमें इंसानियत
तभी हृदय की अतल गहराईयों से चाहूँ
तुम्हारे लिये सुख, समृद्धी , सम्मान,
शान्ति की असीमित दुनियाँ। …
 जिसमें जब भी मैं आऊं,
तुमको हँसता हुआ ही पाऊं
.

                              ...................... …………… रेनू सिंह

शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2014

मंथन

कविता 


आओ हम तुम एक हो जायें

 


तुम खुद को पाओ मुझमें
मै खुद को पाऊँ तुझमे
न तुझको शिकायत मुझसे हो
न मुझको शिकायत तुझसे हो
कुछ ऐसा तुम भी करो
कुछ ऐसा मै भी करूँ
तुमको तुम्हारा ईश्वर मिल जायें
मुझको मेरा ईश्वर मिल जायें
तुम अपनी कमियाँ मुझमे देखो
मै अपनी कमियाँ तुममे देखूँ
आओ इक दूजे का दर्पण बन जायें
आओ हम तुम एक हो जायें
कितनें बाजार सजे तन के है,
तन मिलतें हैं रोज यहाँ
आओ मन का बाजार सजायें,
इक दूजे के मन से मन को मिलायें
आओ हम तुम मन से एक हो जायें
इक दूजे का दर्पण बन जायें



………… रेनू सिंह


गुरुवार, 2 अक्तूबर 2014

मंथन

कविता

  ओ  सखी


जान पहचान नहीं है ,
फिर भी पहचानी सी लगती हो
 
छायांकन हो या कोई स्वप्निल सी
पर तुम सदृश्य नहीं हो मुझको को
 

सुन्दर हो या सुकोमल हो, क्या हो ?
कैसी हो क्या -- क्या   सोचू  मै
 

सरस-- पराग --सी लगती हो तुम
हो कल्पना लोक मे कविता सी
 

या वसी हो मेरा मन आँगन मै
 हो कोई सुरभित सुगंध सी
 

या नील गगन मे शशी शेखर सी
नाज़ुक सी शरमाई सी लगती हो तुम
 

कभी तीखे नयनों वाली सी  दिखती हो
कभी सावन कि झडी सी लगती हो   
 

कभी तुम प्रस्तुत मेरे निज  मन मे
उषा कि प्रथम किरण सी वसती हो
 

तुम कभी उलझी सी दिखती हो
कभी तुम सुलझी सी लगती हो
 

कौन हो तुम कुछ तो दो परिचय
बिन परिचय कैसे पहचानू सखी

दिनेश सक्सेना 

शुक्रवार, 8 अगस्त 2014

मंथन,

कविता 

कौन हो तुम 


कर्तव्य के सतपथ पर नहीं जानता की
...............वह कौन है ..................
कोई शक्ती संजोय मानवाकृति या
................कोई देवी ...................
कोई तेज या आभायुक्त मुखमंडल
................वह संगमरमरी है .........
..................या ...........................
दीप्त -चक्षु -युक्त अधिपति मेरी या
.....................कोई ....................
................कोमल ह्रदय ..............
नहीं जानता की क्यों है आज भी उसका
.....................आसन उच्च .............
मेरे ह्रदय स्थल मे मेरा ,  आन्तर आज भी
उसको पूजता है ,मान उसे देवी देवी को की
तुम कौन हो ?कौन हो ? कौन हो ? .........
तुझसे है कितनो का संसार ,कितने पाने
..........को प्रेरणा है तैयार ....................
बस ना तुम  रुको ,ना तुम हिम्मत हार
लगा ठोकर हटा पर्वत रूप धारण कर देवी का
.............बस जा जन जन मे .....................
स्वप्न पथ पर जब भी मिलना मुझे ,वादा
मै मेरे मन की सुन्दरता दे करूँ स्वागत तेरा !!!!!!!!!!!!!!

दिनेश सक्सेना

मंगलवार, 5 अगस्त 2014

मंथन,

कविता 


याद आई फिर मुझे


याद आई फिर मुझे तेरी वो मुलाकात
तेरा देखकर मुझे मुस्कुराना
और मेरा खुद को आश्चर्य से देखना
अपनी कमियों को ढूँढना
और सोचना तुम मुस्कुराई क्यूँ

समझ से परे था सखी
वो मित्रता का प्रथम आगाज़
धीरे-धीरे करीब आई परिचय हुआ
बैठने लगे साथ-साथ
टूटने लगी एक ही रोटी
दोनों की उँगलियों से
मुस्कुराने लगा फिर से बचपन
बढ़ने लगा विश्वास
सजने लगे जीवन के सपने
सुख दुःख मे चलने लगे
मिलाते हुये कदमों से कदम
सिमट गयी सारी दूरियाँ
बाहें कंधों पर आगये
मिलने लगे हर दिन गले
होली और ईद की तरह
दूर क्षितिज मे बुनने लगे सपने
होने लगी बीच हमारे वो भी बातें
जो कभी नही कर पाते है
रिश्ते खून के एक दूजे से
प्रगाढ़ हो गया
गहरे समुंद्र सा प्रेम हमारा
जिसमे घूमने लगे
बैठ मन की कश्ती में
एक दिन वो भी आया
ले सात फेरे तुम चली गई
और छोड़ गई पास मेरे
यादों का एक विस्तृत आकाश
और उस आकाश मे वो कोना
जहाँ आज भी तुम हो मै हूँ बैठी
पकडे एक दूसरे की कभी न छूटने वाली बाँहें
महक रही है जहाँ आज भी
हमारी मित्रता की खुश्बु
...............रेनू सिंह

गुरुवार, 22 मई 2014

मंथन

कविता 

नारी स्वाभिमान 


तुमको कुछ नहीं आता
कितना अजीब है
ये शब्दों का घाल मेल
एक ही पल में तुम्हारे अस्तित्व को
धूल में मिलाने वाला
कल मुझे भी ये वाक्य मिले
कल थोड़ा अजीब लगा था
पर आज चेहरे पर मुस्कान आ गयी
कल एक साथी ने कहा
तुम्हे कुछ नहीं आता
तो आज मै कहती हूँ
हे साथी मैंने कब कहा
मुझको सब कुछ आता है
तुम मेरे साथ चलो
मै तुमको पूर्ण कर दूँगी
मै तो खुद पर हँसती हूँ
क्यूँकि सच है कि
मुझको कुछ नहीं आता
नहीं आता मुझको
तुम्हारे अहम् के आगे झुकना
नहीं आता मुझको
तुम्हारे पैरों में गिर कर
अपनी खुशियों के लिए गिड़गिड़ाना
नहीं आता मुझेको
तुम्हारे निर्दयता के सामने टूट जाना
नहीं आता मुझको हर पल अश्रु बहाना
कहा आता है हमें कुछ
दृणता के साथ खड़े होकर
हर हाल में मुस्कुराने के सिवा


................ रेनू सिंह  


मंगलवार, 29 अप्रैल 2014

मंथन

कविता 

दर्द बिखराब का 



सबसे छुपाकर वह पीड़ा हिर्दय की जो हंस दिया .
उसकी हंसी ने तो   आज मुझे    भी रुला दिया

सलीके से उठ रहा था हर एक दर्द का अक्ष
चेहरा बता रहा है की  आज कुछ गँवा दिया

आँखे रो रही थी जार जार आवाज़ मे ठहराव था
और दिल कहता है    मैंने सब    कुछ भुला दिया

खुद भी वह हमसे  बिछुड़कर अधूरा सा हो गया
मुझको भी भीड़ मे छोड़कर तनहा बना दिया !!! 

दिनेश सक्सेना