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बुधवार, 5 फ़रवरी 2014

धर्मक्षेत्र

भगवान विष्णु जगत के पालन कर्ता 


जब जब पृथ्वी पर  पाप और अनाचार बढ़ता है, तब तब  भगवान को अवतार लेकर धरती पर आना पडता है। त्रिदेवों-ब्रह्मा, विष्णु और महेश में से भगवान विष्णु पर संपूर्ण जगत के पालन का दायित्व है। इसी कारण हर युग में श्रीहरि को अवतार लेना पडा। सतयुग में भगवान विष्णु ने वराहावतार लिया था, जिसकी गणना उनके दस अवतारों में होती है। एक बार भगवान विष्णु बैकुंठ में लक्ष्मी जी के साथ विश्राम कर रहे थे। उस समय ब्रह्माजी के मानस पुत्र सनकादि भगवान के दर्शन की लालसा से बैकुंठ धाम जा पहुंचे। प्रवेश द्वार पर श्रीहरि के सभासद जय-विजय द्वारपाल के रूप में तैनात थे। उन्होंने सनकादि को आगे बढने से रोक दिया। इससे सनकादि ने क्रुद्ध होकर दोनों द्वारपालों को शाप दे दिया कि तुम दोनों मृत्यु लोक में जाकर असुर बनोगे। सनकादि का शाप सुनते ही जय-विजय भयभीत हो गए। उन्होंने अपने कुकृत्य के लिए सनकादि से क्षमा मांगी। उन्होंने प्रार्थना करते हुए कहा कि असुर योनि में जाने पर भी हमारा उद्धार भगवान विष्णु के हाथों हो और हम मुक्त होकर पुन: बैकुंठ आ जाएं। तभी श्रीहरि अपने द्वारपालों की सहायता के लिए वहां प्रकट हो गए। नारायण के दर्शन से सनकादि अति प्रसन्न हुए और उनका क्त्रोध शांत हो गया। श्रीहरि की इच्छा जानकर सनकादि ने शाप के साथ भक्ति  का वरदान भी जोड दिया। कालांतर में जय-विजय हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु नामक दैत्य बने। हिरण्याक्ष का संहार- हिरण्याक्ष महाबलशाली था। उसे अपनी शक्ति पर बहुत घमंड था। एक बार वह समुद्र में घुस गया। वहां उसने वरुण देव को युद्ध के लिए ललक ारा, पर उन्होंने हिरण्याक्ष की ताकत को भांपकर उसे टाल दिया। तब उस महादैत्य ने पृथ्वी को जल में खींच लिया। पृथ्वी के जलमग्न होते ही सर्वत्र हाहाकार मच गया। जल-प्रलय की स्थिति से पृथ्वी के उद्धार हेतु भगवान विष्णु का वराहावतार हुआ। भगवान वराह का शरीर देखते ही देखते पर्वताकार हो गया। उनकी गर्जना से चारों दिशाएं कांपने लगीं। देवता और ऋषि-मुनि वराह रूपधारी श्रीहरि की स्तुति करने लगे। भगवान वराह की चारों भुजाओं में शंख, चक्त्र, गदा और पद्म थे। महावराह ने अपने मुंह से पृथ्वी को उठाकर उसे समुद्र से बाहर खींच लिया। फिर उसे जल से ऊपर लाकर स्थापित कर दिया और हिरण्याक्ष का संहार किया। इससे उसे दैत्य योनि से मुक्ति मिल गई और वह पुन: बैकुंठ लोक वापस चला गया। वराहावतार की महिमा- आज हजारों वर्षो के बाद भी पृथ्वी पर भगवान के वराह रूप का पूजन किया जाता है। भगवान विष्णु के वराहावतार की स्मृति में प्रतिवर्ष भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को वैष्णव जन व्रत रखकर बडे धूमधाम से वराहावतार जयंती मनाते हैं। इस वर्ष यह जयंती 18 सितंबर को मनाई जाएगी। भगवान वराह पृथ्वी के अधिपति माने जाते हैं। धर्म ग्रंथों के अनुसार जिन्हें भूमि-भवन का अभाव हो या मकान बनाने में रुकावट आ रही हो तो उन्हें वराह जी का विधिवत पूजन करना चाहिए। इसके अलावा तुलसी की माला पर वराह मंत्र ? भूर्वराहाय नम: का जप करने से भूमि और मकान से संबंधित समस्त समस्याओं का समाधान हो जाता है। वराह तीर्थ और मंदिर- नेपाल में कोसी नदी के किनारे धवलगिरि शिखर पर वराह तीर्थ क्षेत्र है। यहां एक मंदिर में वराह भगवान की चतुर्भुजी प्रतिमा है। मंदिर के पास कोबरा (कोका) नदी है, जिसका जल वराह जी की मूर्ति पर चढाया जाता है। भगवान विष्णु ने इसी तीर्थ में महावराह का रूप त्यागकर अपना वास्तविक स्वरूप वापस पाया था। पानीपत से थोडी दूर पर भी वराह तीर्थ है। ऐसी मान्यता है कि भगवान विष्णु ने यहीं वराह के रूप में अवतरित होकर पृथ्वी का उद्धार किया था। राजस्थान के पुष्कर जिले में वहां के राजा अरनोराज ने बारहवीं सदी में वराह मंदिर का निर्माण क रवाया था। यह मंदिर 15 फुट ऊंचा और शिल्पकला का उत्कृष्ट नमूना है। विदेशी आक्रमण करिओं द्वारा इसे कई बार क्षति पहुंचाई गई। इसके बाद जयपुर के रजा सवाई जयसिंह ने इसका जीर्णोद्धार करवाया था। यहां प्रतिवर्ष भाद्रपद महीने के जल झूलनी एकादशी के अवसर पर वराह जी की मूर्ति को पुष्कर सरोवर में स्नान करवा कर उनकी शोभा यात्रा निकाली जाती है।  


दिनेश  सक्सेना

क्यों की जाती है भगवान की परिक्रमा

हिन्दू धर्म में परिक्रमा का बड़ा महत्त्व है। परिक्रमा से अभिप्राय है कि सामान्य स्थान या किसी व्यक्ति के चारों ओर उसकी दाहिनी तरफ से घूमना। इसको 'प्रदक्षिणा करना' भी कहते हैं, जो षोडशोपचार पूजा का एक अंग है। प्रदक्षिणा की प्रथा अति प्राचीन है। वैदिक काल से ही इससे व्यक्ति, देवमूर्ति, पवित्र स्थानों को प्रभावित करने या सम्मान प्रदर्शन का कार्य समझा जाता रहा है। दुनिया के सभी धर्मों में परिक्रमा का प्रचलन हिन्दू धर्म की देन है। काबा में भी परिक्रमा की जाती है तो बोधगया में भी।

परिक्रमा मार्ग और दिशा : 'प्रगतं दक्षिणमिति प्रदक्षिणं’ के अनुसार अपने दक्षिण भाग की ओर गति करना प्रदक्षिणा कहलाता है। प्रदक्षिणा में व्यक्ति का दहिना अंग देवता की ओर होता है। इसे परिक्रमा के नाम से प्राय: जाना जाता है। ‘शब्दकल्पद्रुम’ में कहा गया है कि देवता को उद्देश्य करके दक्षिणावर्त भ्रमण करना ही प्रदक्षिणा है।

प्रदक्षिणा का प्राथमिक कारण सूर्य देव की दैनिक चाल से संबंधित है। जिस तरह से सूर्य प्रात: पूर्व में निकलता है, दक्षिण के मार्ग से चलकर पश्चिम में अस्त हो जाता है, उसी प्रकार वैदिक विचारकों के अनुसार अपने धार्मिक कृत्यों को बाधा विध्न विहीन भाव से सम्पादनार्थ प्रदक्षिणा करने का विधान किया। शतपथ ब्राह्मण में प्रदक्षिणामंत्र स्वरूप कहा भी गया है, सूर्य के समान यह हमारा पवित्र कार्य पूर्ण हो।

दार्शनिक महत्व : इसका एक दार्शनिक महत्व यह भी है कि संपूर्ण ब्रह्मांड का प्रत्येक ग्रह-नक्ष‍त्र किसी न किसी तारे की परिक्रमा कर रहा है। यह परिक्रमा ही जीवन का सत्य है। व्यक्ति का संपूर्ण जीवन ही एक चक्र है। इस चक्र को समझने के लिए ही परिक्रमा जैसे प्रतीक को निर्मित किया गया। भगवान में ही सारी सृष्टि समाई है, उनसे ही सब उत्पन्न हुए हैं, हम उनकी परिक्रमा लगाकर यह मान सकते हैं कि हमने सारी सृष्टि की परिक्रमा कर ली है। परिक्रमा का धार्मिक और वैज्ञानिक महत्व भी है।


शिवजी की आधी परिक्रमा करने का विधान है। वह इसलिए की शिव के सोमसूत्र को लांघा नहीं जाता है। जब व्यक्ति आधी परिक्रमा करता है तो उसे चंद्राकार परिक्रमा कहते हैं। शिवलिंग को ज्योति माना गया है और उसके आसपास के क्षेत्र को चंद्र। आपने आसमान में अर्ध चंद्र के ऊपर एक शुक्र तारा देखा होगा। यह शिवलिंग उसका ही प्रतीक नहीं है बल्कि संपूर्ण ब्रह्मांड ज्योतिर्लिंग के ही समान है।

''अर्द्ध सोमसूत्रांतमित्यर्थ: शिव प्रदक्षिणीकुर्वन सोमसूत्र न लंघयेत इति वाचनान्तरात।''

सोमसूत्र : शिवलिंग की निर्मली को सोमसूत्र की कहा जाता है। शास्त्र का आदेश है कि शंकर भगवान की प्रदक्षिणा में सोमसूत्र का उल्लंघन नहीं करना चाहिए, अन्यथा दोष लगता है। सोमसूत्र की व्याख्या करते हुए बताया गया है कि भगवान को चढ़ाया गया जल जिस ओर से गिरता है, वहीं सोमसूत्र का स्थान होता है।

क्यों नहीं लांघते सोमसूत्र : सोमसूत्र में शक्ति-स्रोत होता है अत: उसे लांघते समय पैर फैलाते हैं और वीर्य ‍निर्मित और 5 अन्तस्थ वायु के प्रवाह पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इससे देवदत्त और धनंजय वायु के प्रवाह में रुकावट पैदा हो जाती है। जिससे शरीर और मन पर बुरा असर पड़ता है। अत: शिव की अर्ध चंद्राकार प्रदशिक्षा ही करने का शास्त्र का आदेश है।

तब लांघ सकते हैं : शास्त्रों में अन्य स्थानों पर मिलता है कि तृण, काष्ठ, पत्ता, पत्थर, ईंट आदि से ढके हुए सोम सूत्र का उल्लंघन करने से दोष नहीं लगता है, लेकिन ‘शिवस्यार्ध प्रदक्षिणा’ का मतलब शिव की आधी ही प्रदक्षिणा करनी चाहिए।

किस ओर से परिक्रमा : भगवान शिवलिंग की परिक्रमा हमेशा बांई ओर से शुरू कर जलाधारी के आगे निकले हुए भाग यानी जल स्रोत तक जाकर फिर विपरीत दिशा में लौटकर दूसरे सिरे तक आकर परिक्रमा पूरी करें।


दिनेश  सक्सेना

सूर्य उपासना से रोग मुक्ति 


अर्घ्य दो प्रकार से दिया जाता है। संभव हो तो जलाशय अथवा नदी के जल में खड़े होकर अंजली अथवा तांबे के पात्र में जल भरकर अपने मस्तिष्क से ऊपर ले जाकर स्वयं के सामने की ओर उगते हुए सूर्य को जल चढ़ाना चाहिए।

दूसरी विधि में अर्घ्य कहीं से दिया जा सकता है। नदी या जलाशय हो, यह आवश्यक नहीं है। इसमें एक तांबे के लोटे में जल लेकर उसमें चंदन, चावल तथा फूल (यदि लाल हो तो उत्तम है अन्यथा कोई भी रंग का फूल) लेकर प्रथम विधि में वर्णित प्रक्रिया के अनुसार अर्घ्य चढ़ाना चाहिए।  


चढ़ाया गया जल पैरों के नीचे न आए, इसके लिए तांबे अथवा कांसे की थाली रख लें। थाली में जो जल एकत्र हो, उसे माथे पर, हृदय पर एवं दोनों बाहों पर लगाएं। विशेष कष्ट होने पर सूर्य के सम्मुख बैठकर 'आदित्य हृदय स्तोत्र' या 'सूर्याष्टिक' का पाठ करें। सूर्य के सम्मुख बैठना संभव न हो तो घर के अंदर ही पूर्व दिशा में मुख कर यह पाठ कर लें।

निरोग व्यक्ति भी सूर्य उपासना द्वारा रोगों के आक्रमण से बच सकता है।
 



दिनेश  सक्सेना